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भारती कृष्ण तीर्थ जी महाराज
वैदिक गणित के प्रणेता पूज्यपाद स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ जी महाराज।
वैदिक गणित के प्रणेता एवं आद्य संशोधक स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ जी महाराज का जन्म 14 मार्च 1884 में तमिलनाडु के तिन्निवेली में हुआ था। वे गोवर्धन मठ जगन्नाथ पुरी के 143 वे जगद्गुरू शङ्कराचार्य थे। उनका बचपन का मूल नाम
वेंकटरमन था। वे एक असाधारण कुशाग्र बुद्धि वाले विद्यार्थी थे। 15 वर्ष की आयू में धारा प्रवाह संस्कृत बोलते थे अतः जुलाई 1899 में मद्रास संस्कृत सभा की और से उन्हें "सरस्वती" की उपाधि से विभूषित किया गया। 20 वर्ष की उम्र में गणित विषय सहित उन्होंने 7 विषयो में एम. ए. की उपाधि प्राप्त की जो उनकी विलक्षण बुद्धि को दर्शाता है। कालान्तर में इन्हें राजमहेंद्री के नेशनल कॉलेज में प्राचार्य नियुक्त किया गया। लेकिन अध्यात्म में गहरी रुचि और आध्यात्मिक उपलब्धि की उत्कट इच्छा के कारण सन 1911 में श्रृंगेरी मठ की और प्रस्थान किया और वैदिक तत्वज्ञान और ब्रम्हसाधना में लग गए। 1911 से 1918 तक स्वामीजी ने वेदों का गहन अध्ययन किया और अथर्ववेद के मंत्रों से गणित के 16 सूत्र खोज निकाले। 16 सूत्रों और 13 उपसूत्रो पर आधारित इस नवीन गणितीय पद्धति को स्वामीजी ने वैदिक गणित का नाम दिया। इन्होंने शारदापीठ के जगद्गुरू शंकराचार्य त्रिविक्रम तीर्थ जी द्वारा 4 जुलाई 1919 को सन्यास की दीक्षा ग्रहण की तथा 1925 ई. में जगन्नाथ पुरी स्थित गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य बने।
स्वामी जी कहा करते थे की उन्होंने वैदिक गणित के 16 सूत्रों के लिए 16 खण्ड लिखे है और उनकी पांडुलिपियां उनके किसी शिष्य के पास जमा है। दुर्भाग्यवश वे 16 खण्ड पूर्ण रूप से विनष्ट हो गए और इस भीमकाय हानि की पुष्टि 1956 में हुई। 1957 में अमेरिका में स्वामीजी ने अपनी स्मृति से सोलह सूत्रों का भूमिकात्मक उल्लेख करते हुए वैदिक गणित पुस्तक पुनः लिख डाली। यह पुस्तक उन्होंने वृद्धावस्था और कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद डेढ़ माह में लिखी थी। 2 फरवरी 1960 को बम्बई में स्वामी जी ने नश्वर शरीर का त्याग कर महासमाधि ले ली। 1960 में स्वामीजी द्वारा लिखित वैदिक गणित पुस्तक की टाइप प्रति अमेरिका से मंगवाई गयी।
वैदिक गणित की विधियों द्वारा कठिनतम और जटिल गणितीय प्रश्न भी चुटकियो में त्वरित गति से हल किये जा सकते है। कोई भी सामान्य व्यक्ति जिसे गणित का प्रारंभिक ज्ञान है, सरलता और शीघ्रता से इन विधियों द्वारा गणित के प्रश्न हल कर सकता है। इसी कारण इसे मानस गणित भी कहते है। यह अत्यंत रुचिकर और मजेदार गणित है। यह विद्यार्थियों को गणित के भय से मुक्ति दिलाता है अतः स्वामीजी इसे अश्रुरहित गणित भी कहते थे। प्रतियोगी परीक्षा के अभ्यर्थियों के लिए तो वैदिक गणित वरदान स्वरूप ही है। वैदिक गणित के नियमित एवं सतत अध्ययन से मानव मस्तिष्क का संपूर्ण विकास होता है। हमे गर्व होना चाहिए और स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करना चाहिए कि वैदिक गणित भारत की विश्व को अमूल्य देन है। आज स्वामीजी का शरीर विद्यमान नही है किंतु वैदिक गणित के रूप में वे आज भी और भविष्य में भी हमारे बीच उपस्थित रहेंगे।